Monday, 27 February 2017

भारतीय नारी

कहती हूँ कुछ जब मजबूर बड़ी होती हूँ 
बेवजह बोलने की ज़रा भी शौकीन नहीं
तुम्हारे सारे काम चुप-चाप करती हूँ
इन्सान हूँ मै भी जानेमन, कोई मशीन नहीं

ब्याह के लाये थे तुम मुझे रानी बनाने को
नौकरानी से ज्यादा का अहसास होने न दिया
दिन-भर घर के कामों ने मुझे व्यस्त रखा
रात को मेरे स्वामी, तुमने सोने न दिया

मेरी व्यथा सिवाए तुम्हारे कौन समझेगा
ससुराल मे तो मेरी कोई सहेली तक नहीं
शादी के बाद जियुँगी खुल के पति के साथ
ये सोच कर मायके मे खाई-खेली तक नहीं

मेरे प्राणनाथ, दिलबर, सपनों के सहज़ादे
मुझ पर कभी प्यार की एक नज़र तो डालो
सिर्फ साथ रहने, खाने-पीने, सोने के अलावा
तिर्छी नज़र के तीर चला, बांहों में मुझे सम्भालों

मुझे अपनी मल्लिका, प्रेयसी, दिलरुबा जानकर
कभी मेरे साथ भी दो घड़ी प्यार से बैठ जाया करों
आदेश नही फ़रीयाद करती है अर्द्धान्गनी तुम्हारी
जम्मेदारियों से हट कर भी कुछ समय बिताया करों

यूँ तो ज़िन्दगी कट ही जायेगी रिश्ता निभाते
पर यादें नहीं रहेंगी बुढ़ापा काटने के लिए
कोई साथ नहीं बचेगा होश सम्भलते ही
एक मैं ही रह जाऊंगी साथ बाटने के लिए

ये लिख छोड़ गई वो इन्तज़ार मे उनके आने को
कि शायद देख पतिदेव चले आऐं उसे मनाने को
न सोचा उसने स्वामी क्या ज़वाब देंगे ज़माने को
चली गई घर की आबरू, न छोड़ा मुँह दिखाने को

अब चाहें दोनो मिलना एक-दूसरे से बेशुमार
पर ये इन्तज़ार है जो खत्म होके नही देता
ये समाज, ये परिवार, ये जिम्मेदारी और
पति का फर्ज़ पति को प्रेमी होने नही देता
   - नितेश सिंह (पति)

Friday, 24 February 2017

मै चाहता हूँ

बचपन से दौड़ रहा हूँ,
अब कुछ करना चाहता हूँ
थक गया हूँ जीते-जीते,
बस अब मरना चाहता हूँ

जिन्दगी है मेरी पर,
औरों के नाम करता रहा हूँ
जीकर किसी के वास्ते खुद,
घुट-घुट कर मरता रहा हूँ

याद नही किसी दिन,
मैने कोई सपना देखा
बिन बन्दिश जीने का,
न मैने बचपन देखा

बारी-बारी सब ने,
मुझसे ख्वाब सजाऐं
बिन पूछे आँखों में,
अपने ही ख्वाब दिखाऐं

कोई इन्जीनियर डाॅक्टर, 
कोई वकील कलेक्टर
कोई चाहे बनाना मुझको,
खाकी वर्दी का इन्सपेक्टर

अपने अरमान अपने मसले
सबको सदा सुहाते हैं
बस pressure बनाने को,
सब मिलकर सुनाते हैं

दलीलें सुनकर सबकी,
अवाक रह जाता हूँ सदा!
हरदिन कुत्ता खदेड़ से
बचाले मुझको ऐ खुदा!

क्यों नहीं पूछता कोई,
मै क्या करना चाहता हूँ!
थक गया हूँ जीते-जीते,
बस अब मरना चाहता हूँ!
   - नितेश सिंह (confusiya)

महा शिव-रात्रि

आई रे आई फिर से, आई वो रात्रि
सबको मुबारक हो, Happy शिव-रात्रि

बम बम भोले जयकारा लगा, 
           इसका सब स्वागत करें
भोलेनाथ को प्रसन्न कर भक्त, 
          जीवन मे खुशियाँ भरें

भूतनाथ को खुश करना, 
          कोई टेढ़ी खीर नहीं
स्वच्छ मन से प्रार्थना कर, 
          दर्शन देते वो हर कहीं

भोले-शम्भु-हर हर महादेव, 
          जिसभी नाम से भक्त बुलाते हैं
भोले-भन्डारी महाकाल वो, 
          प्रेम-विवश चले आते हैं

विश्वनाथ-दुर्गापति वो, 
          इतनी मदद कर जाते हैं
अन्तकाल स्मरण-मात्र से हम, 
          भव-सागर तर जातें हैं

नीलकण्ठ शिव-शंकर ने, 
          मंथन का स्वं विषपान किया
वेग घटा गंगाधर ने, 
          गंगामृत हमको दान दिया

आओ इस पावन पर्व पर, 
          दिल से सारे मिलकर बोलें
जय महाकाल शिव-शम्भु, 
          हर हर महादेव बम-बम भोले
  - नित्य मुकुन्द दास (साधक)

Thursday, 23 February 2017

दिल का आलम

तेरी चाहत को रुसवा, मै कर गया
तुझे छोड़ा तो मै, जीते-जी मर गया
तेरी वफाओं पर सदगा, सुबह-शाम करता हूँ
ये आलम है तुझ पर, आज भी मरता हूँ

ये गलती जो की, बस पछतावा रह गया है
तू नही है पर जुबाँ पर नाम तेरा रह गया है
सिसकता हूँ अश्कों से बयाँ दास्ताँ करता हूँ
ये आलम है तुझ पर, आज भी मरता हूँ

वो वज़ह तो याद नही, अन्ज़ाम रह गया
जिस पल मेरी जाँ तुझे, अल्विदा कह गया
तू मायूस थी इसलिए, खुद को कोसा करता हूँ
ये आलम है तुझ पर, आज भी मरता हूँ

मेरे दिल की बात, तुझ तक पहुँचे तो सुन ले
दिलबर अपना फिर, मुझको तू चुन ले
माफ़ करदे तहेदिल से, फ़रियाद करता हूँ
ये आलम है तुझ पर, आज भी मरता हूँ
- नितेश सिंह (दिलबर)

Monday, 13 February 2017

ज़िन्दगी

कभी सपनों से हकीक़त में आना ज़िन्दगी
शागिर्द मुझे अपना बनाना ज़िन्दगी
सुना है बड़ी हसीन है तू जीने में
कभी हुनर मेरा भी आज़माना ज़िन्दगी

अनमोल तो किसी की सस्ती है ज़िन्दगी
किसी की अपने प्यार में बसती है ज़िन्दगी
हसरतें तो कर लूँ मै भी सदा जीने की
पर किसी पल भी सिमट सकती है ज़िन्दगी

ख़ुद में ख़ुश रहने का फ़लसफ़ा है ज़िन्दगी
धोखे खाकर भी करना वफ़ा है ज़िन्दगी
आसाँ है किसी को भुला कर अकेले जीना
बनाना दुश्मन को भी हमनवाँ है ज़िन्दगी

खुद ही खुद को मिटा दूँ तो क्या है ज़िन्दगी!
हर ग़म को हटा दूँ तो क्या है ज़िन्दगी!
उजालों में आकर ही समझ में आया
अन्धेरें छटां दूँ तो क्या है ज़िन्दगी

    -    नितेश सिंह (संवेदनशील)

Friday, 10 February 2017

बेरहम पत्नी!

आज फिर मै अपनी छठी इंद्री आज़माता हूँ
और एक बेरहम पत्नी की दास्ताँ सुनाता हूँ
ये बात शुरू हुयी थी, एक छोटी-सी बात से
मन-मोहिनी, मन-भावन, उसकी सुहाग-रात से
बैठी थी वो मल्लिका, घूँघट ओढ़े इत्मिनान से
देर करदी पति ने बहुत, क्या आएगा जापान से !
धीरे-धीरे उसके सब्र का, वो बाँध भी टूटने लगा
गर्म दूध का गिलास तक, उसकी गर्मी से फूटने लगा
सोची अब ना छोडूंगी, जो आया एक पल देरी से
लंडन-पेरिस सब भूलेगा, कर दूंगी बस अब ढेर उसे
इतने में दरवाज़ा खुला, और घुस आया वो म्यान में
भूखी शेरनी बैठी थी, जहाँ घात लगाये मैदान में
बेख़बर नादान पति, ज्यों बड़ने लगा घूंघट की ओर
आदेश मिला - अभी जल्दी है, देर में आना थोड़ी और !
मासूम पति ने फिर भी मगर, आदेश को कर दिया अनदेखा
सोच के अपनी पत्नी है, घूँघट को उसने दिया उठा
अरे! हाथ पकड़ कर मोड़ दिया, ना किया ज़रा भी अवलोकन
धोने पति को लगी वो जैसे, पत्नी नहीं वो हो धोबन!
छाती पर चढ़कर बैठ गयी, हाथों पर रखकर वो लात
आँखों को बड़ी करके उसने, लगाये गालों पर दो चमाट
फिर बोली पत्नी मै हूँ, बाहर बुला रखी क्या माशूखा!
देर से इतनी आया क्यूँ, मुझे इंतज़ार में दिया सुखा
नाटक अब ये नहीं चलेगा, रात पहली हो या हो अगली
पत्नी हूँ मै धर्म से, न गर्लफ्रेंड हूँ, न हूँ पगली
रौंदा हमको तुम लोगो ने, समझ के अबला नारी हैं
मत भूलों हम माँ-शक्ति हैं, और जननी-माँ तुम्हारी हैं
डर कर पति स्तब्ध रह गया, देखकर उसका ऐसा रूप
कोने में चुप सो गया कहकर, तुम हो मेरी माँ-स्वरूप!

    -    नितेश सिंह (बेचारा)

वादा किया था!

कैसे भूल जाऊं मुझे प्यार है,
किसी को मैंने वादा किया था
कैसे छोड़ दूँ तन्हा उसे फिर
संग जीने का पक्का इरादा किया था

जब कोई नहीं था साथ मेरे, उसने
थामा था हाथ, दिल पर रखा था
समझाया था जीने का मतलब, मकसद
उसका बस मुझे देना वफ़ा था

सुन्दर था दिल उसका, दिल को
संभाल कर वो रखती थी
मुँह से कुछ न कहती  कभी, बस
आँखों से ही वो तखती थी

मै समझ गया गहराई उसकी, एक दिन
Propose भी कर डाला था
धीमी मुस्कान, झुकी आँखें, अंदाज़
उसका यही निराला था

वो वक़्त अच्चा था, हमने
जो एक साथ गुज़ारा था
संग उठना-बैठना, खाना-खेलना, जीने का
बस वही तो एक सहारा था

किस्मत की करवट को कौन कोसे,
समझ पाना ही मुमकिन नहीं
हम अब साथ नहीं, न होंगे कभी
इस बात पर ना होता यकीं

वो वहां अकेली पड़ गयी,
परिस्तिथियों से जूझ रही है
अबला, बेचारी, तन्हा वो,
बस मुझे ही ढूंढ रही है

पर मै समाज-परिवार की
महत्त्वाकांक्षा में धंस गया हूँ
बिना-मर्ज़ी, बेमानी इस
शादी में फँस गया हूँ

कैसे गुज़रे वक़्त को
लौटा पाऊं, सोचता हूँ
उन गलियों में भटकता हूँ, खुद को
ख्वाबों में रोकता हूँ

ये मंज़र आएगा, किस्मत ने
मुझे ये ईशारा किया था
कैसे भूल जाऊं मुझे प्यार है,
किसी को मैंने वादा किया था

     -    नितेश सिंह (बेचारा)

Wednesday, 8 February 2017

गीता-ज्ञान २

क्या जीवन, क्या इसकी ज़रूरत
क्या है हम सबकी पहचान!
अंधाधुंध भाग रहे पाने को
रोटी, कपड़ा और मकान!

ज्ञान-रहित इस दौड़ में बस
दौड़ रहे, न जाने मुक़ाम!
मूल-ज़रूरते पूरी करने हेतु
करते बड़े-छोटे सारे काम!

कभी सोचा! बिन परिश्रम के
कैसे अज़गर को भोजन मिलता
और बिन कर्म नवजात-शिशु को
राजा या रंक का घर मिलता

ये वही ज्ञान है, सोच वही
जो पौराणिक ग्रंथों में व्याप्त है
इस मृत्यु-लोक, भवसागर से
जो मुक्ति हेतु मात्र प्रयाप्त है

है गीता-ज्ञान ये प्रकृति उसकी, है वही ईश्वर परम
“मयाध्यक्षेण प्रकृति, सूयते सचराचरम” [BG ९.१०]

चतुर-श्लोकी गीता में, भगवान कृष्ण स्वं कहते
“अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते” [BG १०.८]

भौतिक-अभौतिक सब उनसे, वही सभी में है विद्यमान
“परं ब्रह्म परं धाम, पवित्रं परमं भवान” [BG १०.१२]

हमे चाहिए हम बस कर्म करे, ना परिणाम की करे परवाह
क्यूँकी “प्रकृते: क्रियमाणानी, गुणैः कर्माणि सर्वशः” [BG ३.२७]

मन को लगा उस ईश में, जब करेंगे हम भगवद चर्चा
आत्म-ज्ञान तब होगा हमे, “तुस्यन्ति च रमन्ति च” [BG १०.९]

भगवद-सेवा की लालसा में, “भजतां प्रीतिपूर्वकम” [BG १०.१०]
स्वं इश्वर मार्ग-दर्शक बनेंगे, “ददामि बुद्धियोगं तं” [BG १०.१०]

मन में भगवन जब वास करेंगे, अंधकार छट जायेगा
प्रकाशमय मन-मंदिर होगा, “ज्ञानदीपेन भास्वता” [BG १०.११]

सीधा-सरल ये रस्ता है, संतोष ही है किसकी कुंजी
भगवद-नाम का कीर्तन ही, एक-मात्र है जीवन की पूंजी

ऐसे गीता-ज्ञान की, रहती है मुझको सदा प्यास
शीष झुकाए नत-मस्तक हूँ, मै नित्य मुकुंद दास!
   -  नित्य मुकुंद दास (साधक)

Tuesday, 7 February 2017

शायरी

दिल के छालो को छेड़ो तो कविता बन जाती है

नब्ज दुखती दबाएँ कोई, वाह-वाही निकल जाती है

शायराना अंदाज़ तो नहीं हमारा बयाँ करने का

दिल की बात दिल तक पहुंचे तो शायरी बन जाती है


कलमों को भिगा कर कागजों के आँसूं नहीं बनाता

चीस दिल की को किसी की मै हँसीं नहीं बनाता

दुखे दिल के कतरों को आँखों से बहाया करता हूँ

जिनकी छींटों से लिखता हूँ, तुक-बंदी नहीं बनाता


दर्द-ए-दिल जो समझे उस हमदर्द की तलाश है

हम दर्द भूल जाएँ उस ज़ाम-ए-अक्ष की प्यास है

दिल के गुलिस्ताँ फिर आबाद हो जायेंगे

ज़िन्दगी के सफ़र में वो हमसफ़र ग़र आस-पास है


काश दिल की आवाज़ उसके दिल को छू जाती

बेपरवाह, बेफ़िक्र, बेसुध वो मेरे हुज़ूर में आती

दिल के छालें भरते, सुकून मिलता तब रूह को

बेख़बर इस कदर जब वो, मेरी आहोश में समाती


पर खुली आँखों के ख्याब कभी पूरे नहीं होते

अरमान-ए-दिल आँसुओं से बयाँ पूरे नहीं होते

तब दिल की स्याही में डूब कर कलम कागज़ पर चलती है

और तब कहीं जाकर किसी शायर की शायरी बनती है
  
    -    नितेश सिंह (शायर)