आज फिर मै अपनी छठी इंद्री
आज़माता हूँ
और एक बेरहम पत्नी की
दास्ताँ सुनाता हूँ
ये बात शुरू हुयी थी, एक
छोटी-सी बात से
मन-मोहिनी, मन-भावन, उसकी
सुहाग-रात से
बैठी थी वो मल्लिका, घूँघट
ओढ़े इत्मिनान से
देर करदी पति ने बहुत, क्या
आएगा जापान से !
धीरे-धीरे उसके सब्र का, वो
बाँध भी टूटने लगा
गर्म दूध का गिलास तक, उसकी
गर्मी से फूटने लगा
सोची अब ना छोडूंगी, जो आया
एक पल देरी से
लंडन-पेरिस सब भूलेगा, कर
दूंगी बस अब ढेर उसे
इतने में दरवाज़ा खुला, और
घुस आया वो म्यान में
भूखी शेरनी बैठी थी, जहाँ
घात लगाये मैदान में
बेख़बर नादान पति, ज्यों
बड़ने लगा घूंघट की ओर
आदेश मिला - अभी जल्दी है, देर
में आना थोड़ी और !
मासूम पति ने फिर भी मगर,
आदेश को कर दिया अनदेखा
सोच के अपनी पत्नी है,
घूँघट को उसने दिया उठा
अरे! हाथ पकड़ कर मोड़ दिया,
ना किया ज़रा भी अवलोकन
धोने पति को लगी वो जैसे,
पत्नी नहीं वो हो धोबन!
छाती पर चढ़कर बैठ गयी,
हाथों पर रखकर वो लात
आँखों को बड़ी करके उसने,
लगाये गालों पर दो चमाट
फिर बोली पत्नी मै हूँ,
बाहर बुला रखी क्या माशूखा!
देर से इतनी आया क्यूँ, मुझे
इंतज़ार में दिया सुखा
नाटक अब ये नहीं चलेगा, रात
पहली हो या हो अगली
पत्नी हूँ मै धर्म से, न
गर्लफ्रेंड हूँ, न हूँ पगली
रौंदा हमको तुम लोगो ने,
समझ के अबला नारी हैं
मत भूलों हम माँ-शक्ति हैं,
और जननी-माँ तुम्हारी हैं
डर कर पति स्तब्ध रह गया,
देखकर उसका ऐसा रूप
कोने में चुप सो गया कहकर,
तुम हो मेरी माँ-स्वरूप!
-
नितेश सिंह (बेचारा)
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