क्या नदियाँ, क्या जंगल,
क्या है वातावरण,
क्या ऋतू, क्या मौसम,
क्या है जीवन–मरण |
देख कर इनको कभी, दिल
मेरा भी पसीजता,
आधारहीन समाज का कोई,
मानव तो इसे सींचता |
अकर्मठ्ता यहाँ सबके दिलो–दिमाग
पर हावी है,
बस थोडा-सा ध्यान
प्रकृति-पक्ष में देना काफी है |
पहले भी तो यही हम थे,
धरा थी, सूरज था,
यही पशु थे, पक्षी थे,
तरु थे, और नभ था |
तब सब जगह हरियाली,
खुशहाली-सी छायी थी,
पर जाने कौन घडी में,
मानव-बुद्धि चकराई थी |
आज आधुनिकता के चलते,
प्रकृति को सता रहे है,
बहु-मंजिला इमारते बनाने
हेतु, जंगलो को हटा रहे है |
आज़ादी छीन पशुओ की,
जीवन-चक्र ही बदल डाला,
आज अंतर करना मुश्किल है,
क्या नदी है क्या नाला |
वायु दूषित करने का
जिम्मा, लिया है कल-कारखानों ने,
मानवीयता को खत्म किया,
यहाँ बसने वाले इंसानों ने |
“अब बहुत हुआ!” भी कह
नहीं सकती, प्रकृति की विडम्बना देखो,
एक बार ऐ मानव! खुद को ,
इसकी जगह पर रख के देखो |
जवाब यही मिलेगा, ‘अब बस!
और नहीं सहेंगे!’,
इसलिए प्रकृति के खिलाफ
हम कुछ, नहीं करेंगे! नहीं करेंगे! नहीं
करेंगे!...
-
नितेश सिंह (गंभीर)