Saturday, 24 December 2016

I Love You


I can’t talk to u, but I love you
I can’t live with u, but I love u
I can’t satisfy u, but I love you
I can’t forgive u, but I love u

I’m feeling all alone, coz I love u
I miss u a lot, coz I love you
I want to be with u, coz I love u
I can’t lose u, coz I love you

I don’t know what I want, but…
I wish u understand me, coz…
I think I’m confused, but…
I know you love me too, coz…

-        Nitesh Singh (lover)

Thursday, 22 December 2016

ज़िन्दगी का चौराहा



फिर तन्हा रह गया मै ज़िन्दगी के चौराहे पर
जहाँ से कोई मुसाफिर न गुजरता है
इंतज़ार भी मै कर लूँ किसी अपने के आने का
पर मुझसे तो अब मेरा साया भी डरता है

किसी गैर को कभी प्यार से मैंने बुझाया नहीं
अपनों तक के मै कभी काम आया नहीं
फिर क्यूँ मुझे तौफे हज़ार मिलते
ज़िन्दगी में मौके बार बार मिलते

झूठे को शेर आया कहता गढ़रिया भी सच में
शेर आने पर खुद को बचा न सका
झूठ की बुनियाद पर खड़े रिश्तो के महल से
मै भी जाते रिश्तो को रुका न सका

रिश्ते की कस्ती को इश्क के समंदर में चलाने चला था
इश्क को जिंदा रख, किसी और से घर बसाने चला था
समंदर के तूफ़ान में मेरी कस्ती का कोई ठिकाना नहीं
घर तो उजड़ा ही और इश्क को भी दफना पाया नहीं

काश के मैंने इश्क को पहले ही
समझ कर अपना लिया होता
न होता कोई घर बर्बाद और
न मै चौराहे पर खड़ा होता

किम्कर्त्व्यविमूड-सा मै स्तब्ध घबरा रहा हूँ
किस रास्ते चलूँ और छोडू किसे चक्रा रहा हूँ
कोई तो आये जो मेरे दृष्टिकोण पर रौशनी डाले
नहीं तो मेरे भगवन तुझसे विनती है मुझे उठा ले!


-    नितेश सिंह (निराश)

Friday, 16 December 2016

बच्चे है हम!


क्या हम चाहते, क्या हो जाता!
क्यूँ कोई हमको समझ नहीं पाता?
छोटा बच्चा जान के हमको
हर कोई हलके में ले जाता

देखते सब कुछ, समझते सब कुछ
हाँ हम कर सकते है सब ही कुछ
भले ही दीखते है हम ज़रा से
पर कर जाते काम बड़े कुछ

सोचो, किसने बोलना सिखाया?
हमको चलना फिरना सिखाया?
गिरते संभलते खुद ही चले हम,
और खुद हमको बोलना आया!

खुद ही पढेंगे, खुद ही बढेंगे
खेलते कूदते मौज करेंगे
आप तो बस अब सपने देखो
पूरा उनको हम ही करेंगे

झूठ न कहते सच्चे है हम
आप सभी बड़ो से अच्छे है हम
भविष्य आपका हमपर निर्भर
कभी न कहने, बच्चे है हम!

-             -  नितेश सिंह (मासूम)

तन्हाईयां (wrote in 2004)


तन्हाईयां है जगत में, और मै चाहता हूँ ज़िन्दगी
जिस भी चीज़ को चाहा मैंने, कभी मुझे वो नहीं मिली

जिसके लिए मैंने गुलिस्तान बनाया
खुशरंग फूलों से उसको सजाया
उसने कुचला उसे इस कदर
हो गया वो, था जैसे पहले कभी
      तन्हाईयां है जगत में, और मै चाहता हूँ ज़िन्दगी...
चाहता था उसे दिल-ओ-जान से भी ज्यादा
संग जीने-मरने का किया था वादा
पर चली गयी वो सितमगर
दिए कसमे-वादे तोड़ के सभी
      तन्हाईयां है जगत में, और मै चाहता हूँ ज़िन्दगी...
उसके बिन, मेरा दिन कोई होता न था
मिलने का कोई मौका मै खोता न था
है इतनी दूर मुझसे वो ज़ालिम
अब कभी मुझे मिलेगी नहीं
      तन्हाईयां है जगत में, और मै चाहता हूँ ज़िन्दगी...
सजा-ए-मौत ही था तौफा प्यार का
क्यूंकि मै आशिक था एक बेवफा यार का
चाहने लगा उस संगदिल को
जो शायद कभी मेरी थी ही नहीं
      तन्हाईयां है जगत में, और मै चाहता हूँ ज़िन्दगी...
दुनिया ही लुट जाये जिसके पीछे
उजड़ जाये सब दिलो के बगीचे
क्यूँ जी रहा है वो प्यार अब तक
बाद मरने के, मै सोचता हूँ यही
      तन्हाईयां है जगत में, और मै चाहता हूँ ज़िन्दगी
      जिस भी चीज़ को चाहा मैंने, कभी मुझे वो नहीं मिली
-               -  नितेश सिंह (तन्हा)

Thursday, 15 December 2016

सोनी (My first poem ever wrote in 2001)


तू ही मेरा सौरभ है तू ही मेरा है सबल
तू ही मेरा प्रणय है तू ही है निश्चय-अटल
तरणी की किरने तू ही है,
मेरे लिए सुधोपम तू ही है,
आवाज़ तेरी पीक-मृदु , चेहरे पे तेरे भोलापन
मैंने प्यार किया है तुझसे, जानता है सारा भुवन
सबसे सुन्दर तू ही है, सोनी
तेरी जैसी कोई न होनी
तुझपे मै अपना जीवन वार दूँ
तेरी चाहत से ज्यादा तुझे प्यार दूँ
तू ही बता दे , मै क्या करूँ,
तू कहे तो जियूं मै, वरन मरुँ,
      to be continued…
  - नितेश सिंह (मासूम)

Friday, 9 December 2016

अमर प्यार


मैंने एक सपना देखा
उसमें कोई अपना देखा
सपना तो टूट गया जगने पर
पर आपना साथ रह जाता है

जब आँख खुली थी इस दुनिया में
मै था किसी अपने की बाहों में
भूल भले ही गया हूँ अब सब
पर वो अहसास रह जाता है

ऊँगली पकड़ के चलना सिखाते
हमको गिरना संभलना सिखाते
आज चला मै अपने रस्ते
पर सर पर हाथ रह जाता है

पढा-लिखा कर बड़ा किया है
अपने पैरों पर खड़ा किया है
आज मन मर्ज़ी का काम करता हूँ
पर अरमान किसी का रह जाता है

कभी कुछ नहीं माँगा मुझसे
देते रहे वो सब चुपके से
नए रिश्तो को बनाने हेतु
रिश्ता पुराना रह जाता है

दर्द समझ नहीं आता मुझको
न क़र्ज़ चुकाना आता मुझको
हूँ अमानत मै भी किसी की
जिनका बस नाम रह जाता है

काश मै उनको समझ पाता
वक़्त रहते ही जग जाता
अनमोल है मात-पिता वो मेरे
प्यार जिनका अमर रह जाता है
-    नितेश सिंह (बेशुक्रा)

Thursday, 8 December 2016

प्रकृति की विडम्बना


क्या नदियाँ, क्या जंगल, क्या है वातावरण,
क्या ऋतू, क्या मौसम, क्या है जीवन–मरण |

देख कर इनको कभी, दिल मेरा भी पसीजता,
आधारहीन समाज का कोई, मानव तो इसे सींचता |

अकर्मठ्ता यहाँ सबके दिलो–दिमाग पर हावी है,
बस थोडा-सा ध्यान प्रकृति-पक्ष में देना काफी है |

पहले भी तो यही हम थे, धरा थी, सूरज था,
यही पशु थे, पक्षी थे, तरु थे, और नभ था |

तब सब जगह हरियाली, खुशहाली-सी छायी थी,
पर जाने कौन घडी में, मानव-बुद्धि चकराई थी |

आज आधुनिकता के चलते, प्रकृति को सता रहे है,
बहु-मंजिला इमारते बनाने हेतु, जंगलो को हटा रहे है |

आज़ादी छीन पशुओ की, जीवन-चक्र ही बदल डाला,
आज अंतर करना मुश्किल है, क्या नदी है क्या नाला |

वायु दूषित करने का जिम्मा, लिया है कल-कारखानों ने,
मानवीयता को खत्म किया, यहाँ बसने वाले इंसानों ने |

“अब बहुत हुआ!” भी कह नहीं सकती, प्रकृति की विडम्बना देखो,
एक बार ऐ मानव! खुद को , इसकी जगह पर रख के देखो |

जवाब यही मिलेगा, ‘अब बस! और नहीं सहेंगे!’,
इसलिए प्रकृति के खिलाफ हम कुछ, नहीं करेंगे! नहीं करेंगे! नहीं 
करेंगे!...

-    नितेश सिंह (गंभीर)

क्या हो गया !



क्या था मै , और क्या हो गया !
खुद से मिला भी नहीं , और खो गया !

ज़िन्दगी की इस दौड़ में चलना आसान तो नहीं
खुद से बिछड़ के , खुद से मिलना आसान तो नहीं

चाह थी मेरी उस मौला से मिलने की एक दिन
अपनों के सपनो को पूरा करने चला उसके बिन

राह कठिन थी , उसके बिन नामुमकिन हो गयी
अर्जुन को मिली भगवद-शिक्षा , सही साबित हो गयी

वापिस बचपन में जाना , बेवकूफी - सा लगता है
जहाँ बस माँ के आँचल में छुपना ही स्वर्ग लगता है

कोई नहीं है जिसे अपना हाल – ए – दिल सुना सकूँ
काँधे पर रख के सर रोलूं , भीगूँ भी और भिगा सकूँ

आज खुद को पहचानना तक दुश्वार हो गया
सोचता हूँ क्या था मै , और क्या हो गया !


-    नितेश सिंह (बुद्धिया)

मै कौन हूँ !


मै कौन हूँ , प्रश्न उठा मेरे मन में
सही है सब मेरा है मेरे इस तन में !

मैंने मेरा दिमाग बहुत ज़ोरों से लगाया
मेरे हाथ से मेरा सिर धीरे से खुजाया

मेरे पैर भी टेंशन में यहाँ – वहां चलने लगे
मेरी आँखें घूमी और कान सब कुछ सुनने लगे

साँसे तक बराबर लगातार चल रही थी
क्यूंकि मेरी नाक भी एकदम सही थी

मेरा सब कुछ सही से काम कर रहा था
और मै अभी भी मेरे शारीर में भटक रहा था

कुछ तो था जो मै समझ नहीं पाया
मेरी सभी चीजो में मै कहाँ से आया !

मेरा दिल घबराया , सिर चकराया जाने क्यूँ !
वही प्रश्न रह गया बस, मै कौन हूँ ?

-    नितेश सिंह (confusiya!)

क्यूँ !


एक बार फिर उस मोड़ पर तू
मुझे ले आई, ऐ ज़िन्दगी क्यूँ !
जहाँ कोई अपना, कोई अनजाना न था
और जीने का भी कोई बहाना न था !

एकदम तन्हा, अकेला, बेसुध मै हूँ
दे कर सब छीन लिया मुझसे क्यूँ !
न प्यार, पत्नी, दोस्त, न परिवार
अब नहीं है मुझे किसी पे ऐतबार !

सब धोखे देते, और मै खाता हूँ
इस खेल को मै समझ नहीं पाता क्यूँ !
चौराहे पर खड़ा मै, बस तकता हूँ आसमान
एक तमन्ना है और, एक साथी का है अरमान !

मतलब के रिश्ते – नाते, और बंधन मै सहूँ क्यूँ
मतलब से भरी इस दुनिया में मै अब रहूँ क्यूँ !
आ जा लग जा गले, और किसका है तुझे इंतज़ार
बांहे फैला कर स्वागत है तेरा, ऐ मौत मुझे मार !
  - नितेश सिंह (दुखिया!)