क्या था मै , और क्या हो
गया !
खुद से मिला भी नहीं , और
खो गया !
ज़िन्दगी की इस दौड़ में चलना
आसान तो नहीं
खुद से बिछड़ के , खुद से
मिलना आसान तो नहीं
चाह थी मेरी उस मौला से
मिलने की एक दिन
अपनों के सपनो को पूरा करने
चला उसके बिन
राह कठिन थी , उसके बिन
नामुमकिन हो गयी
अर्जुन को मिली भगवद-शिक्षा
, सही साबित हो गयी
वापिस बचपन में जाना ,
बेवकूफी - सा लगता है
जहाँ बस माँ के आँचल में
छुपना ही स्वर्ग लगता है
कोई नहीं है जिसे अपना हाल –
ए – दिल सुना सकूँ
काँधे पर रख के सर रोलूं ,
भीगूँ भी और भिगा सकूँ
आज खुद को पहचानना तक
दुश्वार हो गया
सोचता हूँ क्या था मै , और
क्या हो गया !
-
नितेश सिंह (बुद्धिया)
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