Thursday, 8 December 2016

प्रकृति की विडम्बना


क्या नदियाँ, क्या जंगल, क्या है वातावरण,
क्या ऋतू, क्या मौसम, क्या है जीवन–मरण |

देख कर इनको कभी, दिल मेरा भी पसीजता,
आधारहीन समाज का कोई, मानव तो इसे सींचता |

अकर्मठ्ता यहाँ सबके दिलो–दिमाग पर हावी है,
बस थोडा-सा ध्यान प्रकृति-पक्ष में देना काफी है |

पहले भी तो यही हम थे, धरा थी, सूरज था,
यही पशु थे, पक्षी थे, तरु थे, और नभ था |

तब सब जगह हरियाली, खुशहाली-सी छायी थी,
पर जाने कौन घडी में, मानव-बुद्धि चकराई थी |

आज आधुनिकता के चलते, प्रकृति को सता रहे है,
बहु-मंजिला इमारते बनाने हेतु, जंगलो को हटा रहे है |

आज़ादी छीन पशुओ की, जीवन-चक्र ही बदल डाला,
आज अंतर करना मुश्किल है, क्या नदी है क्या नाला |

वायु दूषित करने का जिम्मा, लिया है कल-कारखानों ने,
मानवीयता को खत्म किया, यहाँ बसने वाले इंसानों ने |

“अब बहुत हुआ!” भी कह नहीं सकती, प्रकृति की विडम्बना देखो,
एक बार ऐ मानव! खुद को , इसकी जगह पर रख के देखो |

जवाब यही मिलेगा, ‘अब बस! और नहीं सहेंगे!’,
इसलिए प्रकृति के खिलाफ हम कुछ, नहीं करेंगे! नहीं करेंगे! नहीं 
करेंगे!...

-    नितेश सिंह (गंभीर)

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