खाली पड़ी दीवार पर चुपकी
छिपकली ये सोचे
पकड़ी जो मैंने तो संभली,
गिर जाती ये वरना निचे
सुबह-सुबह चिल्ला कर
मुर्गा, इसी भ्रम में जीता है
बांग को सुनकर मुर्गे की,
हर रोज़ सूरज उठता है
हम भी ईश की करनी को, अपने
नाम पर है मड़ते
“अहंकार विमूड़ात्मा कर्ताहमिति
मन्यते” [BG ३.२७]
लालच भरा है मन में, दिल
में भरी है तृष्णा
अर्जुन भी पूछते गीता में
“चंचलं हि मन: कृष्ण” [BG ६.३४]
एक मार्ग बताया भगवन ने, बस
वही एक है ध्येय
कृष्ण ने उत्तर दिया
“अभ्यासेन तु कौन्तेय” [BG ६.३५]
उस ईश्वर को हम याद रखे,
नाम जपे हर वक़्त
सीख यही दी कृष्ण ने की
“मन्मना भव मद्भक्त” [BG ९.३४ & १८.६५]
कितने दयालु है भगवन मेरे,
वही है मेरे सच्चे गुरु
सिखा के सब कुछ छोड़ दिया
कहकर “यथेच्छसि तथा कुरु” [BG १८.६३]
हम आत्मा, वो परम-आत्मा है
यही बस एक सत्य है
सम्बन्ध-अभिध्येय को जाने
बिना, ये सारा जगत बस मिथ्य है
क्या विज्ञान की बात करे जो
विज्ञान ईश बिना है
उस शक्तिमान को ना जानना तो
जीना शीश बिना है
जो जान जाये उस इश्वर को,
कभी मिटती नहीं उसकी हस्ती
“ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न
शोचति न कांक्षति” [BG १८.५४]
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नित्य मुकुंद दास (साधक)