एक दिन बैठा मै रात को
एक बात को लगा सोचने
आसमान को देख कर
लगा किसी को खोजने
आता कहां से सूरज है
जाती कहां को है ये मही
जो गुम हो जाते तारे दिन मे
क्या रात्रि को निकलेंगे सभी
सारी रात को चलता चंदा
सुबह कहां छुप जाता है
वर्षा के बाद कभी जो देखो
नभ सारा धुल जाता है
आसमान मे बादल जैसे
धुम्रपान सा लगता है
कभी-कभी बहु-रंग गगन भी
रंगायन प्रस्तुत करता है
कुदरत का कैसा करिश्मा है
कैसा ये चमत्कार है
क्या खूब रचना की भगवन ने
वही असली कलाकार है
-नित्य मुकुन्द दास (मन-मौजी खोजी)
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