Friday, 6 January 2017

ख़ोज


चलते चलते ज़िन्दगी के कारवां, यूँ ही गुज़र जाते है
अपने भी साथ न चलते है, गैर भी न जा पाते है
मुड़ के देखो तो भीड़ बहुत चली है पीछे तुम्हारे
न जानते हो पीछे किसीको, न जानकार आगे तुम्हारे

सूरज ढलते ही साथ छोड़ देता है वो साया
जो जुड़ा था ऐसे, मानो आत्मा से काया
तन्हा ही चले थे इस सफ़र में, रह जायेंगे फिर तन्हा
परिचित होंगे बहुत पर, सदा कोई साथ रहता है कहाँ

चलते चलते हम नाजाने, कितना आगे, और कहाँ निकल जायेंगे
बिन मकसद, बिन मंजिल, ज़िन्दगी के कारवाँ यूँ ही बड़ते जायेंगे
साहिल को खोजती कश्तियाँ भी, समुन्दर में ही गोता खाती है
और उसके बिन, बड़ी बड़ी हस्तियाँ भी मिट्टी में मिल जाती है

उसकी खोज में ही हम दरअसल, जीवन-चक्र में बड़ गए
भूल उसी को कारवां में, निरर्थक तन्हा पड़े गए
हँसता होगा देख कर वो, हमारे इस क्रिया-कलाप को
वो तो संग है हर-घडी, ज़रा खोंजे अपने-आप को
    -    नित्य मुकुंद दास (मन-मौजी खोजी)


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